कई बार इक एहसास सा हुआ मुझको
कि निज़ात तेरे गम से मिल गई शायद.
वो चाक-गरेबाँ हो या शिकस्ता-दिल,
किसी धागे से हर दरार सिल गई शायद.
आती है तेरी याद भी अब कुछ कम,
मसरूफि़यत मेरे मन को घेर लेती है,
रहती है मेरी आँख भी कुछ कम नम
कुछ पल को तबस्सुम बिखेर लेती है.
दिले-बेचैन को क़रार आने लगता है,
कभी चोट कहाँ थी, पता नहीं चलता,
जिस घाव को नासूर समझ बैठा था,
है भी या नहीं अब, पता नहीं चलता.
पर कुछ लफ्ज़ तेरे, भूले हुए माज़ी से,
ज़ेहन में आके तेरी याद दिला जाते हैं,
तेरे नक्श निगाहों में फिरने लगते हैं,
मेरे इरादों की बुनियाद हिला जाते हैं.
या फिर किसी रात के सन्नाटे में,
तू अचानक मेरे ख़्वाबों में चली आती है,
तेरा मिल बैठना, तेरी हँसी, तेरी बातें,
कुछ आरज़ू फिर से तू जगा जाती है.
रिसते हैं मेरे सूखे हुए ज़ख्म फिर से,
भूले हुए कुछ दर्द उभर आते हैं.
मचल उठता है फिर सोया हुआ दिल मेरा,
हज़ार जलजले मेरी जाँ से गुज़र जाते हैं.
हर अश्क जब गिरता है किसी कागज़ पे,
बनता है ये इक लफ्ज़ मेरे शे’रों का,
गज़लें मेरी कासिद हैं महज़ तेरी ओर,
खबर पहुँचाने मेरी जीस्त के अंधेरों का.
तुम सोचती हो आम इक शायर हूँ मैं,
और अलफ़ाज़ कलम छू के संवर जाते हैं,
पर है ये फक़त तेरी ही चाहत का असर,
मेरे ज़ख्म बन अशआर उभर आते हैं.